पसंद बनाम सहानुभूति

     जीवन के कुछ एक यथार्थ सत्यों में दो शब्द शामिल हैं- पसंद तथा सहानुभूति। व्यक्ति जिस भी चीज़ को पसंद करता है, उस चीज़ से उसे सहानुभूति होना लाज़मी है। लेकिन क्या हर वह चीज़ जिससे व्यक्ति सहानुभूति रखता है, उसे पसंद करता है.???   ये एक यक्ष प्रश्न है.!


    उदाहरण के लिए, यदि कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से बेइंतेहाँ प्रेम करता है, तो स्वतः ही उसकी हर छोटी-बड़ी आदतों से उसे प्रेम होने लगता है। उसकी पसंद में उसे खुद की पसंद नज़र आने लगती है। यहाँ तक कि उसके बात करने का लहज़ा, उसके शौक, उसकी बुरी आदतों तक को सही समझने लगता है। यह प्रेम का आकर्षण ही है, जो सावन के अंधे को सब हरा ही हरा देखने को मजबूर करता है। कारण सिर्फ इतना कि वह अपनी प्रेमिका को पसंद करता हैं।

    पसंद से शुरुआत हुई एक साधारण सी कथा आकर्षण की तपिश से कब एक असाधारण प्रेम-कथा में तब्दील हो जाती है पता नहीं लगता। फलस्वरूप जहां पसन्द होती है, वहाँ आकर्षण है। जहाँ आकर्षण होता है, वहाँ प्रेम है और जहां प्रेम होता है, वहाँ सहानुभूति है। अर्थात जिसे हम पसंद करते हैं, उससे सहानुभूति होना लगभग तय है।

    एक और उदाहरण लेते हैं, यदि सड़क पर कोई मैला-कुचला सा गरीब व्यक्ति भूखा हमें नज़र आये तो वहां से गुजरने वाले हर दस व्यक्तियों में से ज्यादा से ज्यादा तीन व्यक्तियों का ध्यान उस पर आकृष्ट होगा। क्योंकि हमारी ज़िन्दगी इतनी तीव्र गति से भाग रही है, हमें खुद के सिवाय किसी और से कोई मतलब ही नहीं है। और जिन तीन लोगों का ध्यान उस व्यक्ति पर जाता है, उनमें से मात्र एक व्यक्ति ही सहानुभूतिवश उस गरीब की सहायता करने की सोचता है। फर्ज कीजिये अगर वह एक व्यक्ति आप स्वयं हों, तो क्या आप उस गरीब मैले-कुचले व्यक्ति को भोजन करवाने अपने घर लेकर आएंगे? क्या आप अपने किन्हीं हाई प्रोफाइल दोस्तों के सामने उसे किसी होटल में भोजन करवाने का प्रयास करेंगे? क्या आप अपने हाथों से उसकी भेषभूषा ठीक करने का प्रयास करेंगे?

    शायद आप बिलकुल भी ऐसा नहीं करेंगे। क्योंकि उसे घर ले जाने से या अपने मित्रों के सामने उसे भोजन करवाने से आपके सामाजिक स्तर पर खतरा मंडरा सकता है, ऐसा आप सोचेंगे जरूर। बज़ाय इन सबके आपके दिल में अगर उसके लिए थोड़ा बहुत सहानुभूति है, तो आप उसे मात्र कुछ रुपये देकर आगे अपना रास्ता नापना उचित समझेंगे।

    ऐसा हम इसलिए करते हैं, क्योंकि हम उस गरीब व्यक्ति की स्थिति से सहानुभूति तो अवश्य रखतें हैं, लेकिन उसकी इस अवस्था को बिल्कुल भी पसंद नहीं करते। अर्थात यह आवश्यक नहीं है कि जिससे सहानुभूति हो उसे हम पसंद भी करें।
   प्रेम में पसंद के साथ सहानुभूति स्वतः ही हो जाती है इसलिए प्रेम को अंधा कहना भी उचित है। जबकि किसी से सहानुभूति रखते वक्त हम अपने हृदय के साथ-साथ अपना दिमाग, आँख, नाक, कान अर्थात सभी इंद्रियों को चौकन्ना कर देते हैं। इसलिए दिमाग नाप-तौल करता है। बस इतना सा अंतर होता है, किसी को पसंद करने में और किसी से सहानुभूति रखने में। दोनों शब्द "पसंद तथा सहानुभूति" अलग-अलग अवश्य हैं, लेकिन इनका अर्थ कार्य करने वाले की निष्ठा को प्रदर्शित करता है। बेहत्तर है कि हम जिससे सहानुभूति रखते हों, उसे पसंद भी करें।

-प्रभात रावतⒸ  🌞

*(ये लेखक के अपने व्यक्तिगत एवं स्वतंत्र विचार हैं..!!)


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