जंगल राज

     जंगल में चारों तरफ चहलकदमी थी। वातावरण एकदम से खुशनुमा, जैसे धरती पर स्वर्ग उतर आया हो। हवाएं बदली हुई सी और फ़िज़ाओं में मादकता घोले हुई अहसास कराती ये वादियाँ मानों जीवन का वास्तविक आनंद यहीं पर है। सोचा हम भी इन सबका थोड़ा बहुत आनंद लें और बढ़ चले फिर आगे जंगल के ओर....

     अपने आस-पास देखा तो पाया वृक्ष अपने स्थान पर इन बदली हुई हवाओं में भी तटस्थ खड़े थे, जबकि छोटे पौधे और झाड़ियां लहराते डगमगाते से प्रतीत होते थे। कुछ एक दूरी पर कुत्तों और बिल्लियों के एक झुंड को एक-साथ खेलते-कूदते देखा। आगे बढ़े ही थे कि सामने घाट पर शेरों और हिरणों का झुंड एकसाथ पानी पीते नज़र आया। दिमाग को यक़ी तो हुआ नहीं लेकिन जो दृश्य सामने नज़र आ रहा था उसे नज़रअंदाज़ भी तो नहीं किया जा सकता था। सोचा आगे का रास्ता नाप लूँ... गहरी सांसें लेते हुए चल ही रहा था कि यकायक दृष्टि एक नेवले पर पड़ी।

"कहाँ जा रहे हो इतनी जल्दी में"? मैंने नेवले से पूछा।

उत्तर मिला- "विषहू साँप का आज जन्म दिवस है, पार्टी घर पर रखी है, इसलिए वहीं जा रहा हूँ"।

मैंने अचरज़ भरे स्वर में पूछा- ''क्या! जन्म दिवस की पार्टी पर.. तुम्हें बुलाया है.?''

"इतना क्यों चौंक रहे हो? तुम्हें बुलाया है तो तुम भी चल लो वरना मेरा टाइम खोटी न करो... न जाने कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं..." कुछ ऐसा बुदबुदाता हुआ नेवला वहां से जल्दी में निकल पड़ा।

     ये सब मेरे जीवन का पहला अनुभव था इसलिए आँखों देखी पर विश्वास नहीं हो पा रहा था। सामने एक वृक्ष के नीचे बैठकर ये सब सोच ही रहा था, तभी ऊपर पेड़ से एक बंदर अठखेलियां करता हुआ नीचे उतरा।

मुझसे बोला- "क्यों भाई क्या सोच रहे हो.?

मैंने कहा- "कितना शांत और प्यारा जंगल है। सभी जानवर कितने प्यार से एक-दूजे के साथ रहते हैं। झूठ, फरेब, हिंसा, ईर्ष्या से कोसों दूर... कितने भाईचारे से रहते हैं सभी।"

बंदर ने पहले तो अपना सिर खुजाया फिर हँसते हुए बोला- "खा गए न धोखा। अरे भाई यहाँ कोई भाईचारा नहीं है। हमारा जंगल भी तुम इंसानों के जैसा ही है। वो तो चुनाव सर पर हैं और आचार संहिता लगी हुई है। वरना एक सेकेंड नहीं लगता हम जानवरों को इंसान बनने में।''

मैने कहा- "चुनाव! कैसा चुनाव?"

बंदर बोला- "चलो तुम्हें जंगल घुमा लाऊँ, खुद देख लेना कैसा चुनाव।"

बंदर की बात मानकर मैं उसके साथ जंगल भ्रमण पर चुनावी तैयारियां देखने निकल पड़ा.....

     जंगल में चारों तरफ भीड़ लगी थी। ज़ोर-ज़ोर से ढ़ोल और नगाड़ों की आवाज़ें। सुनने में आया कि शेर के नामांकन की भीड़ है और ये इस बार मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदारों में से एक हैं। झुलूस में सबसे आगे सियार जोरों से जयकारा लगा रहा था। हिरण, बकरियां, भैसे नृत्य कर रहे थे। जबकि कुछ पक्षियां गाने की धुन पर माहौल बना रहे थे।

मैंने बंदर से पूछा- "ये तो पास के जंगल के पक्षी हैं, फिर यहाँ कैसे?"

बंदर ने कहा- "इस बार इन्होंने अपनी डाल के साथ-साथ अपना जंगल भी बदल लिया है। क्योंकि शेर ने सभी को एक-एक स्टूडियो बनाने का वायदा जो किया है।"

     आगे एक अन्य उम्मीदवार मेंढक साहेब की रैली निकल रही थी। पूछा तो पता लगा कि चुनाव में हर बार की तरह, इस बार भी भाग्य आजमा रहे हैं। चुनाव चिन्ह मिला है- 'बैंगन'। क्योंकि चुनाव आयोग भी जानता है ये साहेब "थाली के बैंगन" हैं। ये कभी इस पार्टी से उस पार्टी में कूदकर चले जाते हैं, तो कभी उस पार्टी से इसमें कूद आते हैं। और इनकी कूदाकूदी फिर आगे भी चलती रहती है। वैसे भी चुनावी बरसात का आगाज़ हो चुका है, मेंढकों की टर्रटर्राहट अब ज्यादा सुनाई देगी। मौसम समाप्त होने पर ये भी गायब हो जाएंगे।

     कुछ और आगे चलकर देखा तो.... एक बैल अपने कुछ टट्टु समर्थकों के साथ इमोशनल भाषण दे रहा था। पूछने पर पता लगा कि ये एक "उज्याडु बल्द" है। यह पांच सालों में सिर्फ एक बार इमोशनल भाषण देकर भोले-भाले जानवरों को बेवकूप बनाता है और उनका विश्वासमत हासिल कर लेता है। फिर जहां हवा का रुख चले उस तरफ की पार्टी जॉइन कर लेता। साढ़े चार साल सत्ता की खूब मलाई खाता है और फिर चुनावी साल में पार्टी बदलकर जानवरों के बीच रोने चला जाता है। सभा में कुछ उल्लू भी आये हुए थे, जो मंच पर खड़े होकर उज्याडु बल्द के हर झूठ पर नेताजी जिंदाबाद का नारा लगा रहे थे।

     दूसरी तरफ, घोड़ा भी इस बार पुनः चुनावी मैदान में खड़ा है। जंगल के सभी जानवर ये बखूबी जानते हैं कि उनका नेतृत्व घोड़े से बेहत्तर कोई और नहीं कर सकता। फिर भी घोड़ा आज तक जंगल में कोई चुनाव जीत नहीं पाया है। कारण यह कि घोड़ा जिस पार्टी के चुनाव-चिन्ह पर चुनाव लड़ता है, उस पार्टी को जंगल में कोई पसन्द नहीं करता। वह एक जंगल विरोधी पार्टी है। जानवरों को घोड़े से सहानुभूति तो है, लेकिन उसकी पार्टी से दूरी रखना बेहत्तर समझते हैं। जानवरों को घोड़े का निर्दलीय चुनाव लड़ना तो पसन्द है, लेकिन उसकी पार्टी के चिन्ह पर नहीं। विचारों की इस लड़ाई में विकास घोड़े के चुनाव न जीत पाने पर थम सा जाता है।

     तभी एक गधा अकेले ही जंगल की चुनावी हवा के विपरीत अनजान बेचारा चला जा रहा था। मैंने उससे पूछा- "अरे भाई कहाँ जा रहे हो? तुम्हें पता नहीं जंगल में चुनाव आया है।"

गधा बोला- "मुझे पता है चुनावी साल आया है इसलिए अकेला हूँ। मैं गधा हूँ यह समझकर कोई भी मुझे अपने साथ नहीं ले गया। मुझे चुनाव से कोई मतलब नहीं और न ही इस जंगल की राजनीति से है। बस दो पल के खाने का गुजारा हो जाये इसलिए मजदूरी पर जा रहा हूँ।''

मैने कहा- "लेकिन इस समय सभी प्रत्यासी चुनाव में खड़े हैं। तुम जो मांगोगे वे तुम्हारी सभी मांगें पूरी करेंगे। अभी माहौल बना हुआ है, धन-बल, खाना-पीना, नौकरी, शराब-शबाब तुम जो भी चाहो अपने लिए मांग सकते हो।''

गधा बोला- "मैं एक गधा हूँ इसलिए गधों के किये गए झूठे वादों को बखूबी जानता हूँ। गधा हूँ इसलिए ध्याड़ी-मज़दूरी पर जा रहा हूँ, चुनावी रैलियों में नहीं।''

लेकिन जंगल के उन भोले-भाले जानवरों का क्या? कौन उनके हितों की बात करेगा.? कौन उनके विषय में सोचेगा..?? मैंने गधे से यह जानना चाहा।

गधा बोला- ''मेंढ़क और उज्याडु बल्द जैसे चुनाव में प्रत्याशी बनें हैं, उल्लुओं की टोली उनका जयकारा लगा थकती नहीं दिखती है, कौवों को चुनाव प्रचार का माइक दिया हुआ है, सियारों को प्रत्याशियों ने अपना विश्वासपात्र बनाया हुआ है, हाथियों ने इस बार नोटा दबाने का मन बनाया हुआ है और मेरे जैसे गधे चुनाव छोड़ अपने काम-धन्धे पर लगे हैं। अज्ञानी बोल रहा है और ज्ञानी चुप-चाप तमाशा देख मौन खड़ा है। हम तो फिर भी जानवर हैं, अपनी तो जैसे-तैसे कट जाएगी जनाब-ऐ-आली लेकिन आपका क्या होगा.???''.... ये सब कहकर गधा आगे निकल पड़ा।

     मैं यह सब देख कर स्तब्ध था। कभी सोचा न था कि जंगल राज में भी ये सब होता होगा। मुझे तो लगा था सिर्फ हमारे लोकतंत्र में ये सब होता है।

मैंने पुनः बंदर की तरफ देखकर पूछा- "और सब तो ठीक है लेकिन तुम क्यों नहीं किसी के साथ चुनावी मैदान में हो? तुम भी तो आखिर एक बंदर हो और जंगल में चुनाव आया है।"

बंदर गुस्से में बोला- ''बंदर नाम सुनके मंकी समझा क्या.... मय फायर है। पूरे जंगल में मय ही एक निर्दलीय प्रत्याशी है। सरकार कोई भी बनाए, मंत्री तो अपुन को ही बनना है।''

मैं अवाक था। मुझे उस वक्त बस एक ही चीज़ सूझ रही थी- "जंगल... जंगलराज, ये सुधरेगा नहीं साला।"

-प्रभात रावतⒸ  🌞

*(ये लेखक के अपने व्यक्तिगत एवं स्वतंत्र विचार हैं..!!)

Post a Comment

6 Comments

  1. बहुत सुन्दर रचना है। आपकी भाषा शैली भी अद्भुत है। मैं आपका हृदय से प्रशंसा करता हूं।

    ReplyDelete
  2. चुनाव को सही से चरितार्थ करती हुई टिप्पणी👀

    ReplyDelete
  3. बहुत ही रोचक सर👌👌

    ReplyDelete
  4. हास्यप्रद एवं व्यंगपूर्ण।
    बेहतरीन पोस्ट ����

    ReplyDelete
  5. बेहद सराहनीय ,बहुत सुंदर लिखा है।बधाई!

    ReplyDelete