हमारे पूर्वजों ने वर्षों पहले जो त्यौहार तथा नियम बनाये थे उनमें वैज्ञानिकता और व्यवहारिकता के साथ-साथ संस्कृति का समागम भी देखने को मिलता है। यह त्यौहार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने पहले हुआ करते थे। इसी को चरितार्थ करता हुआ उत्तराखंड राज्य का एक लोकपर्व है- "हरेला"।
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Harela |
गौरतलब है कि, उत्तराखंड के जितने भी त्यौहार होते हैं उनमें से अधिकतर में यह विशेषता पायी जाती है कि यह सभी त्यौहार प्रकृति, खेती-बाड़ी, जलवायु तथा पशु-पक्षियों के मध्य मानव प्रेम तथा मधुर रिश्तों को प्रदर्शित करते हैं। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों खासकर कुमाऊँ में हरेला पर्व हर्षोल्लास से मनाने की यह परंपरा वर्षों पुरानी मानी जाती है। यह एक ऋतुपर्व होने के साथ-साथ नई उमंग, सकारात्मकता, खुशहाली तथा परिवर्तन का द्योतक है।
उत्तराखंड में हरेला पर्व श्रावण मास के प्रथम दिन या कर्क-सक्रांति को मनाया जाता है। पहाड़ में सौरपक्षीय पञ्चांग होने के चलते यहाँ संक्रांति से ही नए माह की शुरुआत मानी जाती है। अन्य त्योहार जहाँ वर्ष में 1 बार मनाये जाते हैं, वहीं हरेला पर्व वर्ष में 3 मरतबा मनाया जाता है। यह पर्व श्रावण मास के अलावा आश्विन मास और चैत्र मास में भी मनाया जाता है। कुमाऊँ के अधिकतर इलाकों में साधारणतः श्रावण मास वाला हरेला ही मनाया जाता है।
उत्तराखंड में मुख्यतः 3 ऋतुएं मनाई जाती हैं- शीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु तथा वर्षा ऋतु। ये ऋतुएं हिंदी सौर पञ्चांग की तिथियों के अनुसार मनाई जाती हैं। शीत ऋतु की शुरुआत आश्विन मास (सितंबर-अक्टूबर) से होती है। इसलिए आश्विन मास की दशमी को हरेला पर्व मनाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत चैत्र मास (मार्च-अप्रैल) से होती है। इसलिए चैत्र मास की नवमी को हरेला पर्व मनाया जाता है। इसी प्रकार वर्षा ऋतु की शुरुआत श्रावण मास (जुलाई-अगस्त) से होती है इसलिए श्रावण मास की शुरुआत पर हरेला पर्व मनाया जाता है। हरेला त्यौहार हमें नई ऋतु शुरू होने की सूचना देता है। उत्तराखंड वेसे भी भगवान् भोलेनाथ की भूमि है इसलिए श्रावण मास के हरेला पर्व का यहाँ ज्यादा महत्व हो जाता है। श्रावण मास के हरेले में भगवान् शिव के परिवार (शिव, पार्वती और गणेश) की मूर्तियां शुद्ध मिट्टी से बनाकर इन्हें प्राकृतिक रंगों से सजाया और संवारा जाता है। इन्हें स्थानीय भाषा में "डिकारे" कहा जाता है। हरेले के दिन इन मूर्तियों की पूजा हरियाली से की जाती है। कुछ क्षेत्रों में इस दिन को शिव-पार्वती विवाह के रूप में भी मनाया जाता है।
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Dikare |
हरेला पर्व का श्रोत हरियाली से होता है। हरेले के पर्व से 9 दिन पूर्व घर के भीतर मंदिर में 7 प्रकार के अनाजों (जैसे- जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़त और भट्ट) को एक रिंगाल की टोकरी में रोपित किया जाता है। ये 7 अनाजों को 7 जन्मों का प्रतीक माना जाता है। इसके लिए सबसे पहले रिंगाल की टोकरी में एक पर्त मिट्टी की बिछाई जाती है, फिर इसमें कोई एक प्रकार के अनाज के बीज़ डाले जाते हैं। फिर मिट्टी डाली जाती है तथा फिर से दूसरे प्रकार के बीज़ डाले जाते हैं। यह प्रक्रिया 6-7 बार अपनाई जाती हैं। इस टोकरी को सूर्य की सीधी रोशनी से बचाया जाता है तथा प्रतिदिन इसे पानी से सींचा जाता है। 9वें दिन इसकी सांकेतिक गुड़ाई की जाती है तथा 10वें दिन हरियाली को काटा जाता है। हरेला काटने के उपरांत परिवार के मुखिया द्वारा इसे तिलक से अभिमंत्रित किया जाता है। इसके बाद इसे देवता को अर्पित किया जाता है। हरेले को आशीर्वाद स्वरूप सिर पर या कान पर रखा जाता है। तत्पश्चात परिवार के सभी सदस्यों को हरेला लगाया जाता है और पकवान बनाये जाते हैं। इस दिन घर की कुँवारी लड़कियाँ टीका लगाकर पूजा करती हैं और घर के बुजुर्गों से आशीर्वाद लेती हैं। बुजुर्ग उन्हें उपहार स्वरूप दक्षिणा देते हैं। बाहर रहने वाले अपने रिश्तेदारों को डाक के माध्यम से हरेला भेजने का प्रचलन भी खूब है।
हरेला इस कामना के साथ बोया जाता है ताकि फसलों को कोई नुक्सान न हो। हरेला के साथ यह भी किवदंती जुडी है कि जिसका हरेला जितना बड़ा होता है, उसका कृषि और फसलों में उत्पादन भी उतना ही अधिक होगा। हरेला को सामूहिक रूप से मनाने का प्रावधान भी है। यह भी मान्यता है कि अगर किसी परिवार में हरेला के दिन किसी सदस्य की मृत्यु हो जाती है तो तब तक उस परिवार में हरेला नहीं मनाया जाता है जब तक कि उस परिवार में हरेला के दिन ही किसी का जन्म न हो जाये। लेकिन अगर परिवार में इस दिन किसी गाय ने बच्चा दे दिया तो फिर हरेला आगे बोया जा सकता है। वृक्षारोपण त्यौहार होने के कारण श्रावण मास के हरेले पर हर परिवार द्वारा वृक्षारोपण किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि हरेले के पर्व के दिन अगर किसी वृक्ष की टहनी को मिट्टी से रोपा जाए तो 5 दिनों में ही उसमें से जड़ें आने लग जाती हैं तथा इस दिन रोपा गया पौधा हमेशा जीवित रहता है।
समाज में हरेला पर्व की महत्ता को देखते हुए उत्तराखंड सरकार भी पिछले कई सालों से सरकारी स्तर पर हरेला मनाने की पैरवी कर रही है। इस कार्यक्रम में उच्च अधिकारियों से लेकर स्कूली बच्चों तक का सहारा लेकर समाज में नवचेतना लाने का प्रयास किया जा रहा है। अब हम सभी का यह कर्तव्य है कि हम अपने पुरखों की इस विरासत को आगे ले जाएँ। पर्यावरण के प्रति हमारी संवेदनशीलता ही हमारा आगामी भविष्य तय कर सकती है। वैसे तो प्रकृति का संरक्षण करने के लिए वर्ष में किसी एक दिवस को चुनना, ये किसी भी लिहाज़ से तार्किक नहीं है... क्यों न वर्ष भर हम प्रकृति के प्रति अपना रवैया मित्रतापूर्वक रखें। लेकिन फिर भी समाज में इस प्रकार के दिवसों को मनाने का उद्देश्य समाज को जागरूक करना होता है। परम्पराएँ प्राचीन काल से चली आ रही होती हैं। सही परम्पराओं को आगे ले जाकर अपनी भावी पीढ़ी को सौंपना तथा गलत परम्पराओं को समय रहते समाप्त कर लेना यह एक सामाजिक व्यक्ति का परम कर्तव्य होना चाहिए। हरेला पर्व एक ऐसी ही परंपरा है, जो प्रकृति तथा समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी को उजागर करती हैं। यद्दपि समाज अब धीरे-धीरे प्रकृति और अपनी विरासत के प्रति सजग होने लगा है, फिर भी इस दिशा में अभी और अधिक आत्ममंथन की आवश्यकता है। प्रकृति, कृषि तथा किसान से जुड़ा यह पर्व भले ही आज की नई पीढ़ी के लिए ज्यादा महत्व न रखे, परंतु यह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना की हमारे पूर्वजों के समय में था..!!
-प्रभात रावतⒸ 🌞
7 Comments
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